नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि हिन्दू महिला के पिता की ओर से आए लोगों को उसकी संपत्ति में उत्तराधिकारी माना जा सकता है। ऐसे परिजनों को परिवार से बाहर का व्यक्ति नहीं माना जा सकता, हिन्दू उत्तराधिकार कानून की धारा 15.1.डी के दायरे में आएंगे और संपत्ति के उत्तराधिकारी होंगे।
फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा कि महिला के पिता की ओर से आए परिजन हिन्दू उत्तराधिकार कानून, 1956 की धारा 15.1.डी के तहत उत्तराधिकारियों के दायरे में आएंगे। जस्टिस अशोक भूषण की पीठ ने कहा कि धारा 13.1.डी को पढऩे से साफ जाहिर है कि पिता के उत्तराधिकारियों को उत्तराधिकारी माना गया है, जो संपत्ति को ले सकते हैं। लेकिन, जब महिला के पिता की ओर से आए उत्तराधिकारियों को शामिल किया जाता है, जो संपत्ति को हासिल कर सकते हैं तो ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वे परिवार के लिए अजनबी हैं और महिला के परिवार के सदस्य नहीं हैं। कोर्ट ने संपत्ति का स्वामित्व मंजूरी डिक्री के साथ जग्नो के भाई के बेटों के नाम कर दिया, लेकिन संपति के इस स्थानांतरण का जग्नो के पति के भाइयों ने विरोध किया और उन्होंने संस्तुति डिक्री को चुनौती दी। उन्होंने कहा कि हिन्दू विधवा अपने पिता के परिवार के साथ संयुक्त हिन्दू परिवार नहीं बनाती। इसलिए उसके पिता के बच्चों के नाम ये संपत्ति नहीं की जा सकती। परिवारिक सैटलमेंट उन्हीं लोगों के साथ किया जा सकता है, जिनका संपत्ति में पहले से ही अधिकार है। मगर, हाईकोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी। इसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट आए। सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दू उत्तराधिकार कानून की धारा 15.1.डी की व्याख्या की और कहा कि हिन्दू महिला के पिता की ओर से आए परिजन अजनबी नहीं हैं, वे भी परिवार का हिस्सा हैं। कानून में आए शब्द परिवार को संकीर्ण अर्थ नहीं दिया जा सकता, इसे विस्तारित अर्थ में देखना होगा, जिसमें हिन्दू महिला के परिजन भी शामिल होंगे।
कोर्ट ने साथ में यह भी स्पष्ट किया कि ऐसी संपत्ति जिसमें पहले से ही अधिकार सृजित है, उस पर यदि कोई संस्तुति डिक्री होती है तो उसे रजिस्ट्रेशन एक्ट की धारा 17.2 के तहत पंजीकृत करवाने की जरूरत भी नहीं है।